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बिक गये तुम!

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#RAAM RAHEEM, #राम रहीम

राम और रहीम दोनों ने मर्यादा में रहना सिखाया, समाज के नियमों का हमेशा पाठ पढ़ाया, जब जब मानवता पर आंच आयी दोनों ने इंसान को कमर कसना सिखाया। अब न राम की मर्यादा है, न रहीम की इंसानियत साधुओं में भर गयी है सिर्फ हैवानियत, मठों में, आश्रमों में पाप का बोलबाला है ऊपर ऊपर सादगी अंदर गड़बड़झाला है. धर्म के नाम पर पाप रचा जाता है, सीधा सादा इंसान जाल में फंस जाता है, पैसा है पिस्टल है , प्रशाशन पर दबदबा है, साधुओं की मंडी में, इंसान उल्टे पैर टंगा है. अब गुरु नहीं गुरुवाणी के पास जाओ , रामायण और कुरान के पाठों में खो जाओ, वहीं  राम है, वंही रहीम है, वंही धर्म है, वंही यकीन है, अपनी आँखें खोलो ,खुद रास्ता खोजो जो चाहोगे खुदबखुद मिल जाएगा नहीं मिला, तो भी तुम्हारा कुछ नहीं जाएगा।  

स्त्री के भूगोल से परे

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सुकून नहीं मिलता आजकल

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#अपना #पराया

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बुद्द बक्शे में बंद सुंदरियों!

टी. वी. सीरियल की अच्छी बहुओं, अरे कभी तो थको अपनी झूठी मुस्कराहट से, कभी तो दिखाओ कि तुम इंसान हो देवी नहीं, दूसरों को खुश करने का ठेका नहीं ले रखा है तुमने, तुममे भी हैं जान- प्राण। तुम्हें देख-देख कर हर सास बांधती है उम्मीद अपनी बहुओं से वैसे ही, चाहती है इशिता ही आये उसके घर में बहू बनकर, अक्षरा जैसे संभाले घर और ऑफिस दोनों, सिमर की तरह परिवार को जोड़े रखने के लिए अपने ख्वाब लगा दे दांव पर. अरे बुद्द बक्शे में बंद सुंदरियों! कभी तो इंसानी फितरत दिखाओ, आम औरत के सुख-दुःख की कहानी में रची बसी नजर आओ, कभी तो मेकअप बिना अपनी सूरत दिखाओ, कहो कि भारी - भरकम साड़ी और गहने लाद तुमसे भी रसोई में काम नहीं होता, तुम भी हो आम औरत तुम्हे भी लगती है भूख प्यास चोट लगने पर दर्द तुम्हें भी होता है घर, बच्चे, सास - ससुर, घर- ऑफिस संभाले नहीं जाते तुमसे भी अष्टभुजी नहीं हो तुम. लोगों को सुनहरे सपने दिखाने से बाज आओ, आम बहुओं पर थोड़ा तो तरस खाओ.

हादसा!

हादसा! इसमे कौन सी नई बात है ये तो होते ही रहते हैं. फ़िर जितने मरते हैं उससे कंही अधिक पैदा हो जाते हैं. क्या कहा? लोग बह रहे हैं, मवेशी मर रहे हैं, घर -खलिहान डूब रहे है; तो इसमे हम क्या कर सकते हैं? प्राकृतिक आपदाओं पर किसका जोर चलता है. अरे भाई ज़िंदगी -मौत तो ऊपर वाले के हांथ में है, इसमे सरकार का क्या दोष? सरकार विकास के लिये काम कर रही है न मानो तो योजनाओं के पुलिन्दे खोल कर देख लो; RTI तुम्हारे पास है ही. अब चिल्ला-चिल्ला कर सिर न खाओ कलम घिस-घिस कर नेतागिरी मत करो, शांति से जियो, देश-विदेश घूमो अपने चौखटे चमकाओ. अरे मियां! चुपचाप तमाशा देखो, सात अरब जनसंख्या वाले देश में दो-चार लाख मर भी जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है.

विवशता

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और वो मुक्त हो गया.....

उनकी उम्मीदें उसके कंधे पर लदी थीं उनके संघर्ष का दर्द उसके हर एहसास में घुला था, उसकी हर सांस जैसे कर्ज थी खुद पर, अपने सपने जैसे सिर पर बैठे थे. कुछ बन जाने की उम्मीद हर समय चुभती थीआंखों में. जब भी मां -बाप को देखता लगता वे कुछ मांग रहे हैं उससे, मां का परोसा हुआ हर निवाला उसके हलक में अटक जाता, सब कुछ कर रहा था वो; अपने तन-मन का हर हिस्सा किताबों में डुबो दिया था उसने; पर बात कुछ बन नहीं रही थी. हर परीक्षा में कुछ ही नंबर से रह जाता, सब प्रयास हर बार धराशायी हो जाते. भाग जाना चाहता था इस ज़िदगी से, मुक्त हो जाना चाहता था इस बोझ से. एक रात जब उसका सिर फट रहा था, पोर-पोर दर्द में डूबा था, उसने नींद की गोलियों को मुक्ति का हथियार बना लिया. अब सब शांत था सपने, उम्मीदें, चाहतें बस किताबों के पन्ने फड़फड़ा रहे थे.

Love in barriers (मोहब्बत में दीवारें )

आओ खेलें छुपन-छुपाई, तुम मुझे खोजो और मै तुम्हे, पर्दे के इस पार, पर्दे के उस पार दीवारों के इस पार, दीवारों के उस पार. देखो चुपके से मेरी थाली मत टटोलना, रात की एक रोटी रखी है उसमें, तुम्हारे हांथो का सोन्धापन भी. और मैने सन्भाल रखी है तुम्हारी वह प्यारी चितवन; जब चुपके से झांक रही थी तुम रसोई के झरोखे से, मेरी रगो में तुम्हारी हंसी की खनक अब भी मौज़ूद है. तुम बताओ मुझे कंहा छुपाया है तुमने? हूं भी मै तुम्हारे आस या बिसरा दिया मुझे? हां मेरी अल्हड़ मुस्कान में तुम्हारा ही स्मित है, मेरी नज़रों में तुम्हारी ही रोशनी, मेरी सुबह भी तुम हो, शाम भी तुम हो मेरे मखमली चांद भी तुम हो. मैने तुम्हे खोज लिया है तुमने मुझे खोज लिया है; फ़िर ये पर्दे ये दीवारें कैसी? अरे पगली! दीवारें देश की, धर्म की, जाति की, रीति की, रिवाज की अंध समाज की क्योंकि प्रेम से परंपरा ऊपर है व्यक्ति से ऊपर है समाज, मै तुममे हूं या तुम मुझमे किसी को क्या फर्क पड़ता है?

आज़ादी का जश्न

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वो काली रात

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कत्लगाह

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दरारें देशों के बीच

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रक्षा का वादा

राखियों से सजी हुई कलाइयां देती हैं अपनी बहनों को सुरक्षा का वादा  हर बहन अपने भाई की कलाई पर रेशम की गाँठ बाँध कर  सहेज लेती है रिश्ता उम्र भर के लिए , भाई भी बहनों को देते हैं उम्मीद  कि उम्र भर निभाएंगे साथ  हर मुश्किल में होंगे उनके आस- पास. पर कितने भाई निभा पाते हैं अपना वादा ? जब बहन ससुराल में बात बात पर झेल रही होती है शब्द बाण, इच्छा के विरुद्ध खपा देती है अपना सर्वस्व पति के चरणों में , अपने आत्मसम्मान के लिए सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर पाती  अपनी छोटी -छोटी खुशियों के लिए भी करती है ज़द्दोज़हद तब कहाँ होता है भाई का रक्षा का वादा।  काश आज  हर बहन लती अपने भाई से सिर्फ अपनी नहीं  हर औरत की रक्षा का वादा, कि सड़क पर हर लड़की चल सकती बेख़ौफ़ ससुराल में रात भर सो पाती निश्चिन्त  कि उसे मारने का षड्यंत्र नहीं रचा जा रहा होगा उसके आस पास. अपनी छोटी सी इच्छा के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पडेगा उसे.  चाहती हूँ आज हर भाई दे एक वादा ; अब सड़कें सुरक्षित हैं  सुरक्षित हैं घरों के कोने अंतरे   अब किसी भी अनजान की गोदी में पसर सकती है बच्चियां  निकल

एक दोस्त सरहद के उस पार

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एहतियात

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देर हो चुकी थी

पिछले तीन दिन से गज़ब का  उत्साह आ गया था उसके अंदर , लग रहा था  जैसे अब भी देर नहीं हुयी है । सोच रही थी किसी को कुछ बताये या नहीं। फिर सोचा कि नहीं, सब कुछ फाइनल होने के बाद ही बतायेगी। कल इंटरव्यू है। क्या पहनेगी ? कपड़े निकाल कर रख दूं. नहीं पहले पार्लर हो आती हूँ।  बाल ठीक करा लूं।  कपड़े बाल सब ठीक होते हैं तो कॉन्फिडेंस रहता है।   पिछले एक साल से उसने  खुद को आईने में ठीक से देखा तक नहीं है।  दो साल पहले उसने नौकरी के लिए आवेदन किया था। तब से जब भी कंही आवेदन करती है  कहीं से कोई जवाब नहीं आता।  घर में सब कहते अब तुम घर बैठो. नौकरी के ख्वाब छोड़ दो। ज़रा अपनी उम्र देखो। सैतीस साल में कंही नौकरी मिलती है। जब बाईस पचीस वाले आगे खड़े हों तो चालीस साल वालों को कौन पूछता है। डिग्री अपने बैग में रखो और चूल्हा झोंको। परसों, दो साल पहले दिए आवेदन का एक काल लेटर आया था. उस कागज़ पर अपने नाम को देखकर वह जैसे आसमान में उड़ने लगी थी।  पार्लर गयी , बाल ठीक करवाए। घर आकर एक सोबर सी  साड़ी निकाल कर रखी. अगले दिन की पूरी प्लानिंग की।  खाना क्या बनाकर रखेगी।  बेटे को किसके पास छोड़ कर जायेगी।  सब