और वो मुक्त हो गया.....

उनकी उम्मीदें उसके कंधे पर लदी थीं
उनके संघर्ष का दर्द उसके हर एहसास में घुला था,
उसकी हर सांस जैसे कर्ज थी खुद पर,
अपने सपने जैसे सिर पर बैठे थे.
कुछ बन जाने की उम्मीद हर समय चुभती थीआंखों में.
जब भी मां -बाप को देखता लगता वे कुछ मांग रहे हैं उससे,
मां का परोसा हुआ हर निवाला उसके हलक में अटक जाता,
सब कुछ कर रहा था वो;
अपने तन-मन का हर हिस्सा किताबों में डुबो दिया था उसने;
पर बात कुछ बन नहीं रही थी.
हर परीक्षा में कुछ ही नंबर से रह जाता,
सब प्रयास हर बार धराशायी हो जाते.
भाग जाना चाहता था इस ज़िदगी से,
मुक्त हो जाना चाहता था इस बोझ से.
एक रात जब उसका सिर फट रहा था,
पोर-पोर दर्द में डूबा था,
उसने नींद की गोलियों को मुक्ति का हथियार बना लिया.
अब सब शांत था
सपने, उम्मीदें, चाहतें
बस किताबों के पन्ने फड़फड़ा रहे थे.

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