सच के खिलाफ़

नहीं चाहती कि लिखू एक और सच 
वह भी हो  जाए आग के हवाले ,
कलम पकड़ने के एवज में उधेड़ जी चमड़ी,
तसलीमा की तरह 
अपने ही देश में कर दिया जाय नज़रबंद,
धर्म के ठेकेदार करने लगें फ़तवा,
दस आदमी उतारने लगें इज्ज़त सरे बाज़ार। 
जानती हूँ इस आज़ाद देश में ;
आधी आबादी आज भी है पराधीन,
सृष्टी के सपने को धरती पर उतारने वाले को;
गर्भ में ही सुला दिया जाता है मौत की नींद ,
वे चाहते हैं उनका सच छुपा रहे सात पर्दों में ,
हुकूमत उनकी चलती रहे सालों साल,
दुसरे की कुर्बानी पर उड़ती रहे मौज 
और वे !मुसोलिनी , नेपोलियन ,औरंगज़ेब बन 
करते रहें तानाशाही उस कौम पर 
जो जानती है उनकी नंगी असलियत। 

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